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Eklavya Story in Hindi | एकलव्य की कहानी

भारत के सबसे प्राचीन ग्रंथों में से एक महाभारत का हर एक किरदार अपने आप में एक खास महत्व रखता है। भगवान श्री कृष्ण, कौरव, पांडव, गुरु द्रोण, भीष्म पितामह के अलावा भी महाभारत में ऐसे बहुत से व्यक्ति थे, जिनके बारे में आपने सुना तो अवश्य होगा। लेकिन, उनके जीवन की कहानी से शायद ही आप परिचित हो। ऐसे में आज हम आपको महाभारत से ही जुड़े एक वीर योद्धा एकलव्य की कहानी के बारे में बताने जा रहे है।

Eklavya Story in Hindi | एकलव्य की कहानी

यह बात द्वापरयुग की है, जो उस प्राचीन भारत को दर्शाती है, जब शिक्षा ग्रहण करने के लिए स्कूल कॉलेज आदि नहीं हुआ करते थे। उस समय गुरु का आश्रम ही शिष्यों के लिए शिक्षा ग्रहण करने का एकमात्र केंद्र हुआ करता था। शिष्य बाल पन में ही अपने घरों से निकलकर गुरकुल में एक परिवार की तरह रहा करते थे। लेकिन उस समय गुरकुल में शिक्षा कुल को देखकर दी जाती थी और केवल ब्राह्मण और क्षत्रियों को ही शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। ऐसे में जन्म हुआ था एक भील बालक का, जिसका नाम एकलव्य था।

बचपन से ही एकलव्य बहुत होनहार था। वे अपने साथ के अन्य बालकों से बहुत अलग था। एकलव्य जीवन में लक्ष्य प्राप्ति की इच्छा रखता था, जिस कारण वह अक्सर बहुत गंभीर दिखाई पड़ता था, यह देखकर भील राजा में अपने पुत्र को बुलाया और उनसे इस गंभीरता का कारण पूछा। तब एकलव्य ने अपने मन की व्यथा बताते हुए कहा - 'पिताश्री! मैं धनुर्विद्या सीखने की इच्छा रखता हूँ, जिसके लिए मैं गुरु द्रोण के आश्रम चाहता हूँ।' अपने पुत्र के इन वचनों को सुनकर भील राजा चिंता में पड़ जाते है। वे इस बात से भली भांति परिचित थे की गुरु द्रोण केवल ब्राह्मणों और राजकुमारों को ही शिक्षित करते है। लेकिन एकलव्य की दृढ़ निश्चय के आगे वे अपने पुत्र को गुरु द्रोण के आश्रम जाने की अनुमति दे देते है।

एकलव्य बड़े उत्साह के साथ गुरुकुल पहुंचता है। वहां पहुंचते ही वह देखता है की एक व्यक्ति किसी बालक को धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे है। यह देखते ही वह समझ जाता है की यही गुरु द्रोण है, जिनसे धनुर्विद्या सीखने के लिए वह इतनी दूर आया है। एकलव्य एक क्षण भी समय गवाएं बिना गुरु द्रोण के पास जाते है और उन्हें प्रणाम करते है। गुरु द्रोण उनसे पूछते है- तुम्हें पहले कभी तो गुरुकुल में नहीं देखा, तुम कौन हो पुत्र! तब एकलव्य बहुत आदर भाव के साथ द्रोणाचार्य को उत्तर देता है- हे गुरुवर! मैं भील राजा का पुत्र एकलव्य हूँ, और यहां आपसे धनुर्विद्या सीखने की इच्छा लेकर आया हूँ।

एकलव्य की बातों को सुनकर द्रोण कहते है – यह किस प्रकार संभव है, तुम एक शूद्र बालक हो और नियमानुसार, मैं केवल राज घराने के कुमारों और क्षत्रियों को ही शिक्षा दे सकता हूं और धर्म भी मुझे यही सीखता है। मैं अपने धर्म के खिलाफ जाकर तुम्हे शिक्षा नहीं दे सकता। गुरु द्रोण के इन वचनो को सुनकर एकलव्य को बहुत दुःख होता है, वह यह सोचने पर विवश हो जाता है की आखिर ऐसी प्रथा बनाई ही क्यों गई? लेकिन वह चाहकर भी कुछ कह नहीं पाता और बस शीश झुकाएं खड़ा रहता है। इतना ही अर्जुन भी यह सब देखकर एकलव्य का अपमान करता है और उसे अपमानजनक बातें कहता है। जिसे सुनकर एकलव्य दुखी मन के साथ वहां से लौट आता है।

इतने कटु वचन सुनकर भी एकलव्य हार नहीं मानता बल्कि उसकी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने की इच्छा और प्रभल हो जाती है। वह एक शांत स्थान को चुनता है और वहां गुरु द्रोण की प्रतिमा बनाता है और उस प्रतिमा के समक्ष लगन और निष्ठा के साथ नित्य धनुर्विद्या का अभ्यास करना शुरू कर देता है। ऐसे करते हुए कुछ वर्ष बीत जाते है।

एक दिन एकलव्य जंगल में अभ्यास का रहा होता है की अचानक उसे एक कुत्ते के भौंकने की ध्वनि सुनाई देती है, वह पहले तो इस ध्वनि की ओर ध्यान नहीं देता। लेकिन, जब बहुत देर के बाद भी यह आवाज आना बंद नहीं हुई तो वह क्रोधित हो उठा और अपना बाण उठाकर, कुत्ते पर इस प्रकार वार किया की उसे एक खरोंच तक नहीं आई और उसका भौंकना भी बंद हो गया है। उस समय वन में गुरु द्रोण और उसके कुछ शिष्य भी मौजूद होते है जो यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाते है, की आखिर इतना महान धनुर्धर कौन है, जिसने अपनी धनुर्विद्या का इतना अद्भुत प्रदर्शन किया है?

यह सोचकर वे सभी इस धनुर्धर की खोज में निकल जाते है, जिसके बाद उनकी मुलाकात एकलव्य से होती है, लेकिन वह उसे पहचान नहीं पाते। गुरु द्रोण एकलव्य से मिलने पर पूछते है- क्या यह बाण तुमने चलाया है? एकलव्य बड़े आदर के साथ हां में शीश झुकता है। 'क्या मैं तुम्हारे गुरु से मिल सकता हूं, जिन्होंने तुमसे इतनी उत्तम शिक्षा दी' - द्रोणाचार्य कहते है। तब एकलव्य उन्ही का नाम लेता है, जिसे सुनकर वह सोच में पड़ जाते है| गुरु द्रोण कहते हैं – द्रोण तो मैं ही हूँ, लेकिन यह कैसे संभव है? क्योकिं मैंने तो तुम्हे कभी शिक्षा दी ही नहीं। तब एकलव्य उन्हें वह प्रतिमा दिखता है और उन्हें सभी पिछली बातों का स्मरण करवाता है। वह बताता है की कैसे उसने केवल उनकी मूर्ति को गुरु बनाकर,धनुर्विद्या का अभ्यास किया।

एकलव्य की बातें सुनकर गुरु द्रोण बहुत प्रसन्न होते है, लेकिन दूसरी ओर उन्हें यह चिंता होती की है वे अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धारी बनाने का वचन दे चुके है। यदि अब एकलव्य श्रेष्ठ धनुर्धारी बन गया तो उनका अपमान होगा।

जिसके बाद वे एकलव्य से कहते है- तुमने मुझे गुरु बनाकर शिक्षा तो प्राप्त कर ली पर क्या तुम जानते है हो, की शिक्षा के बदले गुरु को गुरु दक्षिणा दी जाती है, क्या तुम मुझे मेरी गुरु दक्षिणा नहीं दोगे? यह सुनकर एकलव्य का मन प्रफुल्लित हो उठता है की कम से कम द्रोणाचार्य ने उन्हें अपना शिष्य तो माना। वह खुश होकर द्रोणाचार्य से कहता है- हे गुरु श्रेष्ट्र! आप जो कहे, मैं वह देने के लिए तैयार हूँ। इस बात पर द्रोण कहते है- एक बार फिर सोच लो पुत्र। 'आपके लिए मैं अपने प्राण तक त्यागने के लिए तैयार हूं' - एकलव्य ने कहा।

तब गुरु द्रोण ने अंहकार से कहते हैं – हे धनुर्धर ! मुझे गुरु दक्षिणा में तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए। यह सुनकर एकलव्य स्तब्ध रह जाता है। लेकिन एक भी क्षण सोचे बिना वह मुस्कुराते हुए अपने कमर से चाक़ू निकलता है और दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर द्रोणचार्य को गुरु दक्षिणा के रूप में दे देता है। यह देखकर द्रोणाचार्य मन में एक दोषी की भांति महसूस करते है, लेकिन वे अपने वचन के आगे विवश होते है। एकलव्य की गुरु भक्ति देखकर वह आगे बढ़कर उसे आशीर्वाद देते है और कहते है की इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से एक महान धनुर्धारी के रूप में तुम्हारा नाम लिखा जाएगा। जब भी गुरु दक्षिणा या गुरु के प्रति स्वामीभक्ति की बात आएगी, तो तुम्हारा नाम सबसे पहले लिया जाएगा।

इस तरह आज इतने वर्षों के बाद भी एकलव्य अपने संकल्प और गुरु दक्षिणा के कारण विश्वभर में जाने जाते है।

(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। Dharmsaar इसकी पुष्टि नहीं करता है।)

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