बहुत समय पहले की बात है। कृष्णानगर में एक बहुत ही दयालु और प्रतापशाली राजा राज्य किया करते थे। एक दिन उसके नगर में एक विदेशी आगंतुक आया, जिसके बाद राजा ने उसकी बहुत खातिरदारी की और पूरा राज्य भ्रमण करवाया। राजा के इस बर्ताव से प्रसन्न होकर उसने राजा को एक अनमोल पत्थर उपहार में दिया। यह पत्थर बहुत ही सुन्दर और चमकीला था।
राजा यह पत्थर देखकर बहुत ही खुश हो गया। उसने निर्णय लिया की इस पत्थर से वो भगवान विष्णु की प्रतिमा बनवाएगा और राज्य के मंदिर में स्थापित करेगा। जिसके बाद उन्होंने अपने महामंत्री को इस प्रतिमा के निर्माण का कार्यभार सौंप दिया।
राजा का आदेश मिलते ही महामंत्री नगर के सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार के पास पहुंचा। उसने वह अद्भुत पत्थर मूर्तिकार को देते हुए कहा - महाराज राज्य के मंदिर में भगवान विष्णु की एक प्रतिमा स्थापित करवाना चाहते है। अतः तुम एक हफ्ते के भीतर इस पत्थर से भगवान विष्णु की मूर्ति तैयार करके राजमहल भिजवा देनाऔर तुम्हे इस कार्य हेतु 50 स्वर्ण मुद्रा दी जायेगी।
इतनी सारी स्वर्ण मुद्राओं की बात सुनकर मूर्तिकार की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। महामंत्री के जाने के बाद वह अपने कार्य में जुट गया। उसने इस उद्देशय से अपने औजारों में से एक हथौड़ा निकला और पत्थर पर वार करने लगा। उसके बार- बार उस पत्थर को तोड़ने के सभी प्रयास विफल होते जा रहे थे। मूर्तिकार ने कई बार वार किए किन्तु वह पत्थर ज्यों का त्यों ही रहा।
मूर्तिकार के लगभग पचास बार वार करने के बाद भी जब वह पत्थर नहीं टूटा तो उसने एक आखिरी बार प्रयास करने के लक्ष्य से हथौड़ा उठाया, किन्तु यह सोच कर हाथ पीछे ले लिया की जब इतने बार प्रयास करने पर भी यह नहीं टुटा तो अब इसका टूटना नामुमकिन सा ही है प्रतीत हो रहा है।
वह मूर्तिकार राजमहल गया और उस पत्थर को महामंत्री को लौटा दिया। उसने महामंत्री से कहा की इस पत्थर को तोड़ पाना नामुमकिन है। इसलिए में यह प्रतिमा नहीं बना सकता।
महामंत्री थोड़ा असमंजस में आ गया क्योंकि चाहे कोई भी स्थिति हो, राजा का आदेश उसके लिए सर्वोपरि था। जिसके चलते उन्होंने प्रतिमा के निर्माण के लिए गांव से एक साधारण मूर्तिकार को बुलाया। जब उस मूर्तिकार ने महामंत्री के सामने उस पत्थर पर हथौड़े से वार किया तो वह मात्र एक प्रहार में ही टूट गया।
पत्थर तोड़ने के थोड़े समय में ही उस मूर्तिकार ने मूर्ति बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी। यह सब देखकर महामंत्री ने सोचा कि काश! वह मूर्तिकार हार नहीं मानाता और एकअंतिम बार प्रयास में सफल हो जाता तो वह 50 स्वर्ण मुद्राओं का हक़दार होता।
इस छोटी सी कहानी से हमें यह सीख मिलती है की जीवन में ऐसा बहुत बार होता है की हम किसी कार्य में बहुत सारे प्रयासों के बाद सफल नहीं हो पाते और अंत में उसका परिणाम खुद ही विचार कर लेते है की यह हमसे नहीं हो पाएगा। लेकिन आपको बता दें, सफलता को प्राप्त करने के लिए एक- दो बार नहीं बल्कि बार बार उसके लिए निरंतर प्रयास करने चाहिए। क्या पता जिस आखिरी प्रयास को करने से पहले हम हाथ पीछे कर रहे हो, वही सफलता के लिए हमारा आखिरी पड़ाव हो।