महाभारत के समय सब कुछ हारने के बाद जब पांडव वनवास भोगने के लिए गए, तो उन्हें वहां अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। तब युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से इन कष्टों से मुक्त होने के उपाय के बारे में पूछा।
यह सुनकर श्री कृष्ण ने कहा - हे कुन्तीपुत्र! तुम विधि-विधान से अनंत भगवान का व्रत करों, ऐसा करने से तुम्हारे सारे दुःख दूर हो जाएंगे। इस प्रकार कहकर वह युधिष्ठिर को कथा सुनाने लगे। यह कथा इस प्रकार है-
बहुत समय पहले सुमंत नाम का एक ब्राह्मण रहा करता था। उस ब्राह्मण की एक पत्नी थी, जिसका नाम दीक्षा था। उस ब्राह्मण दंपत्ति की एक सुंदर, सुशील और धर्मपरायण कन्या थी, जिसका नाम सुशीला था। जब वह कन्या बड़ी हुई थी तो उसकी मां दीक्षा की मृत्युं हो गयी। पत्नी के देहांत के बाद ब्राह्मण ने कर्कशा नाम की एक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया।
सुशीला भी विवाह योग्य थी, जिसके बाद उसका विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया गया। कर्कशा ने अपने दामाद को विदाई के समय कुछ ईट और पत्थर के टुकड़े बांध कर दे दिए। ऋषि कौंडिन्य अपनी पत्नी को साथ लेकर आश्रम की ओर चल दिए। शाम होने के बाद वे कुछ समय रास्ते में रुके, जिसके बाद कौंडिन्य ऋषि नदी के तट पर संध्या वंदन के लिए गए।
नदी किनारे सुशीला ने देखा की बहुत सारी स्त्रियां किसी देवता का पूजन कर रही थी। जब सुशीला ने महिलाओं से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया की वे सभी अनंत भगवान की पूजा कर रहे है। इसके बाद उन सभी स्त्रियों ने सुशीला को इस व्रत के महत्व को भी समझाया। अनंत चतुर्दशी के व्रत के महत्व को सुनकर सुशीला ने भी व्रत का प्रण लिया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर अपने पति के पास लौट आई।
जब कौंडिन्य को इस बारे में पता चला तो उन्होंने यह मानने के लिए मना कर दिया और सुशीला के हाथ से वह डोरा निकालकर आग में में डाल दिया। ऋषि कौंडिन्य के द्वारा भगवान अनंत का अपमान करने के कारण, धीरे धीरे उनकी धन-संपत्ति नष्ट होने लग गयी। वे हमेशा दुखी रहने लगा, जिसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा की ऐसा क्यों हो रहा है। तब सुशीला ने बताया की अनंत भगवान का डोरा जलाने के कारण ऐसा हो रहा है। यह सुनकर पश्चाताप करने हेतु वे वन में चले गए। बहुत दिनों तक वन में भटकते-भटकते वे निराश हो गए और वहीं गिर पड़े।
ऋषि को इस अवस्था में देख भगवान अनंत प्रकट हुए और बोले- ' हे ऋषिवर! तुमने मेरा अपमान किया, जिस कारण तुम्हें इतना दुःख झेलना पड़ा। लेकिन अब तुमने पश्चाताप कर लिया है और इसलिए मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम 14 वर्षों तक विधिपूर्वक अनंत चतुर्दशी का व्रत करों। तुम्हारे सारे कष्ट समाप्त हो जाएंगे।'
श्री कृष्ण के द्वारा इस कथा को सुनकर, युधिष्ठिर ने भी 14 वर्षों तक भगवान अनंत का विधि-विधान से व्रत किया।
(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। Dharmsaar इसकी पुष्टि नहीं करता है।)
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