होली को रंगों का त्योहार कहा जाता है। रंगों और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला यह दिन भारत के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। भारत में संस्कृतियों की विविधता है और इसलिए होली भी अलग-अलग तरीकों से मनाई जाती है। देश में ऐसे भी राज्य हैं, जो रंगों की जगह जूतों की थाप से होली मनाते हैं। आइए जानते है, यूपी की अद्भुत होली के बारे में।
देश के अलग-अलग राज्यों में होली अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है. होली का यह त्योहार कभी रंगों से, कभी फूलों से तो कभी लाठियों से मनाया जाता है। भारत में ब्रज कि लटमार होली (holi 2024) व मथुरा की फूलों की होली सबसे लोकप्रिय मानी जाती है।
होली का नाम सुनते ही सबसे पहले जो बात दिमाग में आती है वह है रंग और पिचकारी। लेकिन, कुछ जगहें ऐसी भी हैं जहां रंगों की जगह जूतों से होली खेली जाती है। जी हां, आपने सही पढ़ा। भारत में ऐसे राज्य हैं, जो रंगों की जगह जूते की मार से होली (Juta Maar Holi) मनाते हैं, इसलिए यह बहुत ही विचित्र और लोकप्रिय मानी जाती है।
जूतामार होली की यह परंपरा शाहजहांपुर( Shahjahanpur Holi) में वर्षों से चली आ रही है। 18वीं शताब्दी में होली मनाने की परंपरा शाहजहाँपुर में नवाब गुट के साथ शुरू हुई, जो अंततः जूता मार होली बन गई। आपको बता दें कि साल 1947 से ही जूतों की थाप से होली खेली जाती रही है।
बताते चले की उत्तर प्रदेश राज्य के शाहजहाँपुर शहर जी स्थापना, नवाब बहादुर खान ने की थी। विषेशज्ञों की मानें तो इस वंश के अंतिम शासक नवाब अब्दुल्ला खान आंतरिक (About Juta Maar Holi in Hindi) मतभेदों के कारण फर्रुखाबाद चले गए। यह शासक न केवल मुस्लिम बल्कि हिन्दुओं में भी प्रसिद्द थे।
जिसके बाद साल 1729 में वे वापस अपने शहर लौट आये। उस समय उनकी आयु 21 वर्ष थी। उनके लौटने के बाद जब पहली होली आई तो दोनों समुदायों के लोग उनके स्वागत के लिए महल के बाहर खड़े थे। जिसके बाद जब नवाब साहब बाहर आए, तो उन्होंने वहां मौजूद सभी लोगों के साथ होली खेली। होली मनाने के लिए लोग नवाब को ऊँट पर बिठाकर शहर में घुमाते थे। तभी से यह शाहजहाँपुर की होली का हिस्सा बन गया।
1858 में, बरेली के शासक बहादुर खान के कमांडर मरदान अली खान ने हिंदुओं पर हमला कर दिया। जिससे चलते पुरे शहर में तनाव की स्तिथि पैदा हो गई। हिन्दुओं पर हमला करवाने वाले इन लोगों में अंग्रेज भी शामिल थे।
ऐसे में लोगों में मन में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा और अधिक बढ़ गया। इसलिए देश की आजादी के बाद नवाब साहब का नाम बदलकर "लाट साहब" कर दिया गया और जुलूस ऊंट की जगह भैंसों के साथ गाड़ियों पर चलने लगा। तभी से लाट साहब को जूतों से पीटने की परंपरा (Shahjahanpur Juta Maar Holi) शुरू हो गई। यह परंपरा अंग्रेजों के प्रति गुस्सा व्यक्त करने का एक तरीका था।
डॉ. विकास खुराना के अनुसार, होली में लाट साहब का जुलूस निकालने की प्रथा 1729 से चली आ रही है। लाट साहब के जुलूस में कई दिलचस्प स्थितियां हैं। लाट साहब का जुलूस उत्साहपूर्वक निकाला जाता है। इसका मार्ग कोतवाली क्षेत्र के फूलमती देवी मंदिर से बाबा विश्वनाथ मंदिर तक है। लाट साहब का जुलूस बहुत पुराना पारंपरिक रिवाज है। जिसमें लाट साहब भैंसा गाड़ी पर चलते हैं।